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औरत की प्रगति-पथ के कांटे-

general dibba
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औरत की प्रगति-पथ के कांटे-

औरत परिवार की एक मज़बूत धुरी है-माँ-बेटी-बहिन-पत्नी-नानी दादी और भी ना जाने कितने ही मधुर रिश्तों में बंधा है उसका बज़ूद।हर रिश्ते को समाज में खूबसूरती से प्यार की डोर से बाँधे रखने में उसे महारत हासिल है।औरत देवी का रुप है,औरत की जहाँ पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है,जैसी ऊँची-उँची बातों और भाषणों से हमेशा भरमाया गया है।महिला दिवश भी ऎसी ही एक कडी है जिसे हर वर्ष आठ मार्च को एक औपचारिकता समझ कर निभा दिया जाता है।महिलाओं की परेशानियों और उनका सही समाधान ढूँढने की दिशा में आज भी कोई ठोस शुरुआत होती नज़र नहीं आती।

क्या –हैं औरतों की प्रगति पथ की बाधायें- औरतों की समस्याओं में सबसे प्रमुख है-उनकी देह संरचना,शरीरिक सुरक्षा और पुरुष-प्रधान समाज के पूर्वाग्रह जो आज भी औरत को दूसरा दर्ज़ा ही प्रदान करता है।यह मानसिकता ही समाज में स्त्री-पुरुष के बीच ट्कराव का एकमात्र कारण माना जा सकता है।औरत और मर्द के सम्बन्धों का ताना-बाना परिवार में बचपन से ही बुनकर तैयार होता है,जहाँ दोनों को साथ-साथ रहते हुये भी अलग-अलग भेदभावपूर्ण वातावरण जीने के लिये दिया जाता है।घर की बेटी और बहन पर बन्दिशों की लक्ष्मण-रेखा पैदा होते ही खींच दी जाती है।वहीं लड्कों को हर तरह की आज़ादी मिली होती है।वो कहीं भी कभी भी आ-जा सकतें है,अपनी मर्ज़ी से दोस्त बना सकतें है,पढ-लिख सकतें है,खुले हाथ खर्चा भी कर सकतें है।देश के ८०प्रतिशत परिवारों में भेदभाव पूर्ण नज़रिया देखा जा सकता है।जिन परिवारों में आधुनिकता का वातावरण है वहाँ भी खानपान,शिक्षा,और थोडा बहुत खर्चे की आज़ादी तो है,परन्तु मित्र बनाने देर तक बाहर रहने और खर्चे करने,में अभी भी दोहरे मानदन्ड ही अपनाये जाते है।पति अपनी कमाऊ पत्नी से अपेक्षा रखता है कि वो सारा वेतन उसके हिसाब से खर्च करे,आफिस से सीधा घर आये अपने मित्रों से ज्यादा संपर्क ना रखे खास तौर पर पुरुष मित्रों से।और रसोई ,बच्चों की जिम्मेदारी भी वही सम्बाले। यहीं से नींव रखी जाती है पुरुष दबंगता और नारी को दूसरा दर्ज़ा देने के नज़रिये की।महिलाओं को अबला समझने की मानसिकता की शुरुआत हमारी बचपन की परवरिश और पारिवारिक पृष्ठिभूमि से ही हो जाती है।ऎसे परिवारों में पले-बढे बच्चे अपनी अगली पीढी को भी वही संस्कार देते है। समाज में औरत और मर्द के बीच की दूरियाँ बढती चली जाती है। पुरुष और नारी दोनों ही समाज के अभिन्न अंग है,एक के बिना दूसरा महत्वहीन है तो इनके बीच सहज,स्वभाविक और भेदभावरहित मधुर सम्बन्धों की बात क्यों नहीं हो सकती?

ज़रुरत है नज़रिये में बडे बदलाव की-  जब औरत की समस्याओं और परेशानियों की बात होती है तो सबसे बडा प्रश्न आता है पुरुष प्रधान समाज के नज़रिये का।औरतों को लेकर पुरुषों का नज़रिया आज भी बदला नहीं है।औरतों ने अपनी मेहनत और लगन से भले ही प्रगति के हर द्वार पर दस्तक दे दी हो परन्तु पुरुषों का नज़रिया आज भी औरत को लेकर पुरानी ज़ंग लगी ज़न्ज़ीरों से पूरी तरह मुक्ति नही पा सका है।सोचिये यदि भेदभावपूर्ण पूर्वाग्रहों से समाज को अलग कर दिया जाये तो पुरुष-स्त्री के सारे ट्कराव स्वयं ही बेकार हो जायेगें।फिर ना किसी महिला मुक्ति-आन्दोलन ,या महिला शक्तिकरण की आवश्यकता ही रहेगी।अतःएक बडे और ठोस-सार्थक बदलाब की बहुत ज़रुरत है।ना सिर्फ पुरुषों के नज़रिये में बल्कि औरतों को भी अपनी पुरानी सडी-गली सोच को बदलना चाहिये।औरत का जन्म लिया है तो सहना ही होगा,ये सोच कर बहुत सी स्त्रियाँ अपनी प्रगति के सारे द्वार स्वय ही बन्द कर लेतीं हैं।वो एक कुंए के मेढ्क की तरह पूरा ज़ीवन अन्धेरे में खुशी-खुशी गुज़ार देतीं है।इस तरह वो पीढी दर पीढी औरतों के विकास को बर्बाद करतीं चली जातीं है।ये तो बात हुई गाँव-देहात-कस्बों में बसने वाली कम शिक्षित औरतों की।इसके उलट कुछ महिलायें पुरुषों से बराबरी का मुकाबला करने,उनसे अपनी तुलना करने,पुरुषों की तरह अपने को दिखाने के लिये सिगरेट-शराब,ज़ुआ खेलना,गाली-देना आदि मर्दाना तेवर अपनाती भी देखीं गई हैं।जो काम पुरुष कर सकतें हैं वो एक औरत क्यों नहीं कर सकती?’इस सोच में कोई समझदारी नहीं है बल्कि इससे समाज में नैतिक पतन और ट्कराव बढ सकता है।झगडों और मुकाबलों को छोडकर सामाजिक- पारिवारिक स्तर पर जागरुकता और सहज स्वभाविक सम्बन्धों को मज़बूती देने का भाव जगाना ज्यादा बेहतर परिणाम देगा।

समाज और उसके सदियों से चले आ रहे रीति-रिवाज़ों को एक दिन में बदला तो नहीं जा सकता है परन्तु परिवर्तन के इअस ऎतिहासिक प्रयास में महिलाओ से कहीं अहम भूमिका पुरुषवर्ग की हो सकती है क्योकि हमारा समाज अभी भी पुरुष-प्रधान है।यदि एक पिता बचपन से ही बेटे और बेटी की परवरिश बिना किसी भेद-भाव के करे,उन्हें समान शिक्षा के अवसर तथा सम्मान प्रदान करे तो यह समस्या काफी हद तक सुधर सकती है।एक जागरुक पिता समाज को एक जागरुक बेटी देगा तो बेटी इस परम्परा को अपनी अगली पीढी को ह्स्तान्तरित करेगी तो धीरे-धीरे समाज में औरत -मर्द के बीच की दीवार या कहा जाये ट्कराव,समाजिक सोच और पूर्वाग्रहों को काफी हद तक बदला जा सकता है। इस प्रकार समाज में स्त्री-पुरुष के सहज स्वभाविक सम्बन्धों की स्थापना हो सकेगी।महिला हो या पुरुष दोनों प्रगति पथ पर कदम से कदम मिला कर बिना किसी बाधा के चल सकेगें तो देश में विकास का परचम खुलकर लहरायेगा।

पुनीता सिंह

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