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“आज की नारी किसी सहारे की मोहताज़ नहीं”jagran junction forum

general dibba
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व्यवहारिकता और सत्य की कसौटी पर ये कथन पूरी तरह खरा नही उतरता-“कि पुरुष के सहारे के बिना नारी अधूरी है।”मेरे विचार में ना तो पुरुषों के सन्दर्भ में और ना ही स्त्रियों के संदर्भ में इस धारणा को सौ प्रतिशत सत्य नहीं माना जा सकता हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही पूर्ण नहीं माना जा सकता।चित्रलेखा की कहानी लेखक की अपनी राय थी और ये उपन्यास भी कई दशक पुराना है तब के और अब के समाज में ज़मीन-आसमान का फर्क साफ देखा जा सकता है। आज हमारा आधुनिक समाज तेज़ी से तरक्की कर रहा है औरतों की शिक्षा और नज़रिये में काफी बडे बदलाव भी हुये हैं। शहरी और महानगरीय वातावरण में जागरुकता आने से समाज में ऎसी
अवधारणाओं की डोर कमज़ोर हुई है कि नारी अबला है और पुरुष के बिना एक-दम अधूरी या उसके जीवन की कल्पना करना ही व्यर्थ है। आज लडकियों ने अपनी हिम्म्त और काबिलीयत से पुरुष-प्रधान समाज में जैसे सेंध ही लगा दी है। हर क्षेत्र में वो पुरुषों को चुनौती दे रहीं हैं।यही बात उसके विरुद्व भी जा रही है समाज में आज कैसी-कैसी घिनौनी घटनायें घट रहीं हैं।परम्परावादी पुरुषों का इगो और पुर्वाग्रह औरत की प्रगति को बर्दास्त नही कर पा रहा है।”औरत का दर्ज़ा तो दूसरा रहा है वो उन्नति कर कहीं आगे ना निकल जाये?” इन गिरे हुये विचारों ने ही समाज में अव्यवस्ता का आलम लाकर खडा कर दिया है।
मेरे विचार में मर्द हो या औरत स्त्री हो या पुरुष,लडकी हो या लडकी कुदरत ने इन्हें बिपरीत ज़रुर बनाया है पर ये भी कटु सत्य है कि एक के बिना दूसरा आधारहीन और अस्वभाविक से प्रतीत होतें हैं।बिड्म्बना ही है कि बिपरीत होते हुये भी ये किसी ना न किसी रुप में एक दूसरे के पूरक भी हैं विषम परिस्थितियों में इनके अन्दर इतनी क्षमतायें भी मौजूद हैं कि यह एक दूसरे के सहारे के बिना भी बखूबी अपना जीवन निर्बाह कर लेते हैं।
ईश्वर ने इन्हें अलग -अलग शक्तियों से विभूषित कर संसार में भेजा है परन्तु मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार या कहा जाये पुर्वाग्रहों और द्वेष में फंस कर अपनी सीधी-सादी ज़िन्दगी को खुद ही दुरुह बना डाला।स्त्री शक्ति-स्वरुपा है,और पुरुष शारीरिक रुप से सशक्त है दोनों के मिलजुल कर रहने से समाज में जो खुशहाली लायी जा सकती है वो अलगाव में संभव कहाँ? सहारा शब्द आते ही जागरुक आत्मनिर्भर स्त्री कमज़ोर प्रतीत होने लगती है और पुरुष सहारा देने वाला एक अहंकारी व्यक्तित्व।इसीलिये यह भाव जहाँ नहीं हैं,जिन घरों में ऎसी बातें नही लाई जातीं वहां खुशियां ज्यादा दिन ठहरती हैं ।
समाज में अब युवा लड्के-लडकियां बिना विवाह के भी रह रहें है इन बन्धनों में बंधना नापसन्द करके लिव इन रिलेशन को भी अपना रहें हैं।बात अपने-अपने विचारों की है वो इस जीवन को ही सफल और व्यवहारिक मान रहीं हैं। समाज अपने नज़रिये से सोचता है और अकेली स्त्री को खुद अपने बलबूते पर खुश देखकर भी इंगित करता है। समाज को क्या मालूम कि क्या उसकी मज़बूरियां है? या भविष्य में उसके साथ क्या घटित हुआ जिससे उसे अकेले रहना ज्यादा सुविधाजनक लगा।
जिस तरह स्त्रियों को पुरुष के साथ की ज़रुरत होती है क्या उसी तरह पुरुष भी महिलाओं के साथ के विना अधूरें हैं ?बल्कि महिलाऒं के बिना पुरुषों का जीवन उनकी तुलना में ज्यादा निरीह और अकेला हो जाता है। वो जल्दी अपना दर्द किसी शेयर भी नहीं करते हैं। कुदरत ने महिलाऒ को जितना भावुक और सरल- ह्र्दया बनाया है उतना ही अन्दरुनी मजबूती भी प्रदान की है। वे जल्दी सभी से हिल-मिल जाती हैं और अपना अकेलापन दूर कर लेतीं है। हमारे रुढिवादी समाज की एक और अवधारणा भी है कि मर्द को दर्द नहीं होता। एक मर्द की भूमिका में पुरुष को ना चाहते हुये भी जबरन कठोरता का आवरण पहनना पड्ता है।मर्द खुल कर अपना दर्दे-दिल किसी को दिखा नहीं पातें हैं और घुट-घुट कर जीवन को जीतें हैं। इसके बिपरीत विधवा,परितक्यता या किन्हीं कारणों से अकेली रह गई महिला परिवार या मायके में अपना गुज़ारा कर लेती है पर अक्सर देखा गया है पुरुष एड्जेस्ट नहीं कर पाते।
अतः अन्त में हम यही कह सकतें हैं कि आज के दौर की नारी पुरुष के सहारे,या निर्भरता की मोहताज़ नहीं है।समझौतों पर जीवन को कुर्वान करना पुराने समय की बात थी- जब वो घर के पुरुषों पर हर बात के लिये हाथ फैलाती थी। एक आत्म निर्भर स्त्री पुरुष ही क्या किसी के भी ज़ुल्म सहने को तैयार नहीं हैं।यह ऎटीटुयूट न्यायसंगत भी है।इसी से समाज बाद को भी बढावा मिलेगा। पुरुष को कुदरत के इस विधान को वरीयता देनी चाहिये कि-(वो चाहें पिता,पति,भाई,बेटा या कोई और रुप में हो नारी से उसका नाता जितना सहज स्वभाविक भावनात्मक होगा, जीवन उतना सरल और मधुर रहेगा।ये बात पुरुषों पर ज्यादा लागू होती है क्योंकि ज्यादातर महिलायें आज भी कुछ अपवाद को छोड दें तो पुरुषों के साथ की आवश्यकता को अनिवार्य मानतीं हैं।घर और आफिस के साथ-साथ उनका रिश्तों को हर हाल में निभाने का प्रयास भी रहता है,पर अब यह देखा जा रहा है अधिकारों के प्रति जागरुक स्त्री अपने सुख की भी दरकार रखने लगी है ताल्लुक बोझ बन जायें तो उनको छोड्ना अच्छा।और इसमें बुरा भी क्या है? यदि सहारा ही बेसहारा करने पर तुल जाये तो अलगाव ही एक मात्र बिकल्प रह जाता है। निष्कर्ष यही निकाला जा सकता है ना पुरुष के बिना नारी अधूरी है और ना ही नारी के बिना पुरुष पूरा है।

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